गुरु बिन ज्ञान न उपजै…
मधुसूदन शर्मा
व्यक्ति में यदि ‘ईश्वर’ को जानने की तीव्र इच्छा है, तो उसे ‘सद्गुरु’ आश्रय में जाना होता है। गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करना होता है। संत कबीर ने कहा भी है-
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिले न मोष।
गुरु बिन लयै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।
यानी गुरु कृपा के बिना न तो ज्ञान ही मिलता है, न ही सत्य-असत्य का ज्ञान होता है और न ही मोक्ष मिलता। गुरु की शरणागत होकर ही कल्याण होगा।
दोहे से स्पष्ट है कि ब्रह्म तत्व का साक्षात्कार केवल सद्गुरु यानी ब्रह्मस्वरूप गुरु की कृपा से ही संभव है। परन्तु सद्गुरु का मिलना और उनकी कृपा प्राप्त करना, किसी भी शिष्य के लिए इतना आसान नहीं है। इसके लिए शिष्य में कुछ गुणों का होना या उन गुणों को विकसित करना जरूरी है।
यदि ‘गुरु आश्रय’ पाना है, तो सबसे पहले शिष्य को गुरु में पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा और भक्ति होनी चाहिए। श्रीश्री परमंहस योगानंद जी की निकट शिष्या श्री मृणालिनी माता कहती हैं- ‘शिष्यत्व के मार्ग में गुरु के प्रति निष्ठा एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है। सच्चा शिष्य बनने के लिए शिष्य को भगवान द्वारा भेजे गये गुरु के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। उसे अपने गुरु की शिक्षाओं का निष्ठा से और अनन्य भाव से पालन करना चाहिए।’
श्रीश्री परमहंस योगानंद जी भी आश्वस्त करते हैं- ‘जो गुरु के प्रति शत-प्रतिशत निष्ठावान है, उनकी अन्ततः मुक्ति एवं उद्धार निश्चित है। किसी के अनेक शिक्षक हो सकते हैं, किन्तु गुरु केवल एक ही होता है, जो जन्म-जन्मांतरोें में उसका गुरु बना रहता है, जब तक कि शिष्य ईश्वर में मुक्ति के अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता।’
गुरु में ‘श्रद्धा’ का होना भी शिष्य का आवश्यक गुण है। गुरु के उपदेशों का अनुसरण करते हुए श्रद्धावान शिष्य बहुत जल्दी आध्यात्मिक उन्नति कर लेता है। श्रीमद्भगवद् गीता में भी कहा गया है-‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम…’ अर्थात् श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गुरु में शिष्य की भक्ति के महत्व को लेकर संत कबीर कहते हैं- ‘कबीर गुरु की भक्ति बिन धिक जीवन संसार। धुंवा का सा धौरहरा बिनसत लगै न बार।।’
अर्थात् गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है, क्योंकि इस धुएं रूपी शरीर को समाप्त होने में समय नहीं लगता।
सच्चा शिष्य अपने गुरु के हर आदेश का निर्विवाद रूप से पालन करता है, क्योंकि गुरु ज्ञान एवं पवित्रता की मूर्ति होते हैं। श्रीश्री परमहंस योगानंद जी कहते हैं- ‘गुरु के ज्ञान के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए उनकी आज्ञा का पालन करना नितांत आवश्यक है। गुरु और शिष्य के बीच मित्रता शाश्वत होती है। जब कोई शिष्य गुरु के प्रशिक्षण को स्वीकार करता है, तो वहां केवल संपूर्ण आत्मसमर्पण होता है, किसी प्रकार की विवश्ाता नहीं।’
संसार में सद्गुरु मिलना दुर्लभ है। वह सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें सद्गुरु मिलते हैं। संत कबीर अपने दोहे में सद्गुरु के महत्व के बारे में बताते हैं- ‘यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।’
अर्थात् यह तन विष की बेल के समान है और गुरु अमृत की खान है। अगर अपने शीश के बदले में भी कोई सद्गुरु मिल जाये तो यह बहुत ही सस्ता सौदा है।